61
न समझो ख़ुद-ब-ख़ुद दिल बेख़बर है
निगह में उस परी रू की असर है
अझूँ लग मुख दिखाया नहीं अपस का
सजन मुझ हाल सूँ क्या बेख़बर है
मुरव्वत तर्क मत कर ऐ परीरू
मुरव्वत में मुरव्वत मा'तबर है
तेरे क़द के तमाशे का हूँ तालिब
कि राह-ए-रास्त बाज़ी बेख़तर है
तिरी तारीफ़ करते हैं मलायक
सना तेरी कहाँ हद्द-ए-बशर है
बयान-ए-अहल-ए-मा'नी है मुतव्वल
अगरचे हस्बेज़ाहिर मुख़्तसर है
'वली' मुझ रंग कूँ देखे नज़र भर
अगर वो दिलरुबा मुश्ताक़-ए-ज़र है
62
उसके नयन में ग़म्ज:-ए-आहू पछाड़ है
ऐ दिल सम्हाल चल कि अगे मार-धाड़ है
तुझ नैन के चमन मिनीं क्यूँ आ सकूँ कि याँ
ख़ाराँ के झाड़ ख़ंजर-ए-मिज़्गाँ की बाड़ है
जिसकूँ नहीं है बोझ तिरे हुस्न-ए-पाक की
तिनका नज़ीक उसके मिसाल-ए-पहाड़ है
नर्गिस के फूलने की करे सैर दम-ब-दम
जो तुझ निगाह-ए-मस्त का कैफ़ी कराड़ है
दिल में रखा जधाँ सूँ 'वली' तुझ दतन की याद
दाड़म नमन तधाँ सूँ सिने में दराड़ है
63
मुझ हुक्म में वो रास्त क़द-ए-दिल नवाज़ है
जिसके हरेक बोल में इशरत का साज़ है
कहते हैं खोल पर्दा शनासान-ए-मुद्दआ
जो ऊज में हवा के उड़े शाहबाज़ है
जब सूँ रखा हूँ इश्क़ के आतिश उपर क़दम
तब सूँ मिसाल-ए-ऊद मिरा ज्यूँ गुदाज़ है
ऐ बुलहवस न दिल में रख आहंग-ए-आशिक़ी
जाँबाज़ आशिकाँ पे ये दरवाज़ा बाज़ है
करने को सैर राह-ए-हजाज़-ओ-इराक़-ए-इश्क़
उश्शाक़ पास साज़-ओ-नवा सब नियाज़ है
तेरे ख़याल में जो हुआ ख़ुश्क ज्यूँ रबाब
मिज़राब-ए-ग़म का हाथ उस अपर दराज़ है
मेहराब तुझ भवाँ की अजब है मुक़ाम-ए-ख़ास
हर पंजगाह जिसमें दिलों की नमाज़ है
सुन हर्फ़ रास्तबाज़ का, मत मिल रक़ीब सूँ
हर चंद तेरी तब्अ मुख़ालिफ़ नवाज़ है
ख़ाराँ दिलाँ के चश्म की निस्बत के फ़ैज़ सूँ
सुरमे कूँ इस्फ़हाँ के अजब इम्तियाज़ है
बांग-ए-बुलंद बात ये कहता हूँ ऐ 'वली'
इस शे'र पर बजा है अगर मजकूँ नाज़ है
64
हर गुनाह-ए-शोख़-ओ-सरकश दुश्ना-ए-ख़ूँरेज़ है
तेग़ इस अबरू की हरदम मारने कूँ तेज़ है
इश्क़ के दावे में इसकी बात रखती है असास
सुंबल-ए-ज़ुल्फ़-ए-परी सूँ जिसकूँ दस्त आवेज़ है
आज गुलगुश्त-ए-चमन का वक़्त है ऐ नौ बहार
बादा-ए-गुल रंग सूँ हर जाम-ए-गुल लबरेज़ है
जब सूँ तेरी ज़ुल्फ़ का साया पड़ा गुलशन मिनीं
तब सिती सहन-ए-चमन हर बार सुंबल ख़ेज़ है
सादा रूयाँ कूँ किया मुश्ताक़ अपने हुस्न का
शे'र तेरा ऐ 'वली' अज़ बस कि शौक़ अंगेज़ है
65
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-महवश है
लुत्फ़ उसका अगरचे दिलकश है
मुझ सूँ क्यूँकर मिलेगा हैराँ हूँ
शोख़ है, बेवफ़ा है, सरकश है
क्या तिरी ज़ुल्फ़, क्या तिरे अबरू
हर तरफ़ सूँ मुझे कशाकश है
तुझ बिन ऐ दाग़ बख़्श, सीना-ओ-दिल
चमन-ए-लाला, दश्त-ए-आतिश है
ऐ 'वली' तर्जुबे सूँ पाया हूँ
शो'ला-ए-आह-ए-शौक़ बेग़श है
66
हर तरफ़ हंगामा-ए-अजलाफ़ है
मत किसू से मिल अगर अशराफ़ है
हर सहर तुझ नैमत-ए-दीदार की
आरसी कू, इश्तिहा-ए-साफ़ है
नईं शफ़क़ हर शाम तेरे ख़्वाब कूँ
पंजा-ए-ख़ुर्शीद मख़मलबाफ़ है
नक़्द-ए-दिल दूजे कूँ दुनिया तुझ बग़ैर
हक़ शनासों के नजि़क अशराफ़ है
क्या करूँ तफ़सीर-ए-ग़म, हर अश्क-ए-चश्म
राज़ के क़ुर्आन का कश्शाफ़ है
मस्त-ए-जाम-ए-इश्क़ कूँ कुछ ग़म नहीं
ख़ातिर-ए-नासेह अगर नासाफ़ है
वस्वसे सूँ दिल के मत कर ज़र क़लब
सीना साफ़ों की नज़र सर्राफ़ है
रहम करता नईं हमारे हाल पर
शोख़ है, सरकश है, बेइंसाफ़ है
सूरत-ए-नारस्ता ख़त है जल्वागर
इस क़दर चेहरा सनम का साफ़ है
ऐ 'वली' तारीफ़ उसकी क्या करूँ
हर तरह मुस्तग़नी-उल-औसाफ़ है
67
हरचंद कि उस आहू-ए-वहशी में भड़क है
बेताब के दिल लेने कूँ लेकिन निधड़क है
उश्शाक़ पे तुझ चश्म-ए-सितमगार का फिरना
तरवार की ऊझड़ है या कत्ते की सड़क है
गर्मी सूँ तेरी तब्अ की डरते हैं सियह बख़्त
ग़ुस्से सूँ कड़कना तेरा बिजली की कड़क है
तेरी तरफ़ अँखियाँ कूँ कहाँ ताब कि देखें
सूरज सूँ ज़्यादा तेरे जामे की भड़क है
करने कूँ 'वली' आशिक़-ए-बेताब कूँ ज़ख़्मी
वो ज़ालिम-ए-बेरहम निपट ही निधड़क है
68
हुस्न तेरा सुर्ज पे फ़ाजि़ल है
मुख तिरा रश्क-ए-मात-ए-कामिल है
हुस्न के दर्स में लिया जो सबक़
मुझ नजिक फ़ाजिल-ओ-मुकम्मिल है
रात-दिन तुझ जमाल-ए-रौशन सूँ
फ़ज़्ल-ए-परवरदिगार शामिल है
जिसकूँ तुझ हुस्न की नईं है ख़बर
बेगुमाँ वो जहाँ में ग़ाफि़ल है
ज़ाद-ए-रह दिल सूँ जो बग़ल में लिया
इश्क़ के पंथ में वो आकि़ल है
इश्क़ की राह के मुसाफि़र कूँ
हर क़दम तुझ गली में मंजि़ल है
ऐ 'वली' तर्ज़-ए-इश्क़ आसाँ नहीं
आज़माया हूँ मैं कि मुश्किल है
69
उस शाह-ए-नो ख़ताँ कूँ हमारा सलाम है
जिसके नगीन-ए-लब का दो आलम में नाम है
सरशार-ए-इन्बिसात है उस अंजुमन मिनीं
जिसकूँ ख़याल तेरी अँखाँ का मदाम है
जिस सरज़मीं में तेरी भँवाँ का बयाँ करूँ
ख़ूबी हिलाल-ए-चर्ख़ वहाँ नातमाम है
जब लग है तुझ गली में रक़ीब-ए-सियाह रू
तब लग हमारे हक़ में हर इक सुब्ह शाम है
तनहा न बंद इश्क़ में तेरी हवा 'वली'
ये ज़ुल्फ़-ए-हल्क़ादार दो आलम का दाम है
70
आरिफ़ाँ पर हमेशा रौशन है
कि फ़न-ए-आशिक़ी अजब फ़न है
दुश्मन-ए-दीं का दीन दुश्मन है
राहज़न का चिराग़ रौशन है
क्यूँ न हो मज़हर-ए-'तजल्ली यार
कि दिल-ए-साफ़ मिस्ल-ए-दर्पन है
इश्क़ बाजाँ हैं तुझ गली में मुक़ीम
बुलबुलाँ का मुक़ाम गुलशन है
सफ़र-ए-इश्क़ क्यूँ न हो मुश्किल
ग़म्ज़-ए-चश्म-ए-यार रहज़न है
बार मत दे रक़ीब कूँ ऐ यार
दोस्ताँ का रक़ीब दुश्मन है
मुज कूँ रौशन दिलाँ ने दी है ख़बर
कि सुख़न का चिराग रौशन है
घेर रखता है दिल कूँ जामा-ए-तंग
जग मिनीं दौर-दौर दामन है
इश्क में शम्म: रू के जलता हूँ
हाल मेरा सभों में रौशन है
ऐ 'वली' साहिब-ए-सुख़न की ज़बाँ
ब़जा-ए-मा'नी की शम्मे-रौशन है
71
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतिबार खोती है
क्यूँ कि हासिल हो मुझकूँ जमीयत
ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है
हर सहर शोख़ की निगह की शराब
मुझ अखाँ का क़रार खोती है
क्यूँकि मिलना सनम का तर्क करूँ
दिलबरी इख़्तियार खोती है
ऐ 'वली' आब उस परीरू की
मुझ सिने का ग़ुबार खोती है
72
दिल कूँ तुझ बाज बेक़रारी है
चश्म का काम अश्क बारी है
शब-ए-फ़ुर्क़त में मूनिस-ओ-हमदम
बेक़रारी कूँ आह ज़ारी है
ऐ अज़ीज़ाँ मुझे नहीं बर्दाश्त
संग-ए-दिल का फ़िराक़ भारी है
फ़ैज़ सूँ तुझ फ़िराक़ के साजन
चश्म-ए-गिर्यां का काम जारी है
फ़ौकि़यत ले गया हूँ बुलबुल सूँ
गरचे मंसब में वो हज़ारी है
इश्क़बाजों के हक़ में क़ातिल की
हर निगह ख़ंजर-ओ-कटारी है
आतिश-ए-हिज्र लालारू सूँ 'वली'
दाग़ सीने में यादगारी है
73
सियहरूई न ले जा हश्र में दुनिया-ए-फ़ानी सूँ
सिपहनामे कूँ धो ऐ बेखबर अंझुवाँ के पानी सूँ
शब-ए-ग़म रोज़-ए-इशरत सूँ बदल होवे अगर देखे
तिरी जानिब वो महर-ए-ज़र्रापरवर महरबानी सूँ
नजि़क जानाँ के गर तोहफ़ा लिजाना है तो ऐ नादाँ
लिजा गुलदस्ता-ए-आमाल बाग़-ए-जिंदग़ानी सूँ
नहीं है सीर यक साअत अगर मुल्क-ए-जवानी में
कहो क्या ख़िज़्र कूँ हासिल है उम्र-ए-जाविदानी में
अपस के सर पे मारा कोहकन ने तेशा-ए-ग़ैरत
हुआ जब ख़ुसरव-ए-आलम 'वली' शीरीं ज़बानी सूँ
74
कूचा-ए-यार ऐन कासी है
जोगी-ए-दिल वहाँ का बासी है
पी के बैराग की उदासी सूँ
दिल पे मेरे सदा उदासी है
ऐ सनम तुझ जबीं उपर ये ख़ाल
हिंदु-ए-हरव्दार बासी है
ज़ुल्फ़ तेरी है मौज जमना की
तिल नजिक़ उसके ज्यूँ सनासी है
घर तेरा है ये रश्क़-ए-देवल-ए-चीं
उस में मुद्दत सूँ दिल उपासी है
ये सियह ज़ुल्फ़ तुझ ज़नख़दाँ पर
नागनी ज्यूँ कुएँ पे प्यासी है
ऐ 'वली' जो लिबास तन पे रखा
आशिक़ाँ के नजिक़ लिबासी है
75
तिरा मुख मशरिक़ी, हुस्न अनवरी, जल्वा जमाली है
नयन जामी, जबीं फि़रदौसी-ओ-अबरू हलाली है
रियाज़ी फ़हम-ओ-गुलशन तब्अ-ओ-दाना दिल, अली फ़ितरत
ज़बाँ तेरी फ़सीही-ओ-सुख़न तेरा ज़लाली है
निगह में फ़ैज़ी-ओ-क़ुदसी सरश्त-ए-तालिब-ओ-शैदा
कमाली बद्र दिल अहली-ओ-अँखियाँ सूँ ग़ज़ाली है
तू ही है ख़ुसरव-ए-रौशन, ज़मीर-ओ-साहिब-ए-शौकत
तिरे अबरू ये मुझ बेदिल कूँ तुग़रा-ए-विसाली है
'वली' तुझ क़द-ओ-अबरू का हुआ है शौक़ी-ओ-माइल
तू हर इक बैत आली होर हर इक मिसरा ख़याली है
76
गरचे तन्नाज़ यार-ए-जानी है
माया-ए-ऐश-ए-जाविदानी है
याद करती है ख़त कूँ ज़ुल्फ़-ए-सनम
काम हिंदू का बेदबानी है
तुझ सूँ हरगिज़ जुदा न हूँ मिरी जाँ
जब तलक मुझमें ज़िदगानी है
आशना नौनिहाल सूँ होना
समरा-ए-गुलशन-ए-जवानी है
दिल में आया है जब सूँ सर्व-ए-रवाँ
तब सूँ मुझ शे'र में रवानी है
ऐ सिकंदर न ढूँढ आब-ए-हयात
चश्मा-ए-ख़िज्र ख़ुशबयानी है
वक़्त मरने के बोलता है पतंग
कि मुहब्बत रफ़ीक़-ए-जानी है
गरचे पाबंद-ए-लफ़्ज़ हूँ लेकिन
दिल मिरा आशिक़ी-ए-मा'नी है
ऐ 'वली' फि़क्र-ए-साफ़-ए-साहब-ए-दिल
गोहर-ए-बहर-ए-नुक्तादानी है
77
शुक्र वो जान गई, फिर आई
ऐश की आन गई, फिर आई
तेरे आने सिती ऐ राहत-ए-जाँ
शहर की जान गई, फिर आई
फिर के आना तिरा है बाइस-ए-शौक़
जिस तरह तान गई, फिर आई
तेरे आने सिती ऐ माया-ए-हुस्न
ऐश की शान गई, फिर आई
ऐ 'वली' क़ंद-ए-मुकर्रर है ये बात
शुक्र वो जान गई, फिर आई
78
तुझ मुख का रंग देख कँवल जल में जल गए
तेरी निगाह-ए-गर्म सूँ गुल गल पिघल गए
हर इक कूँ काँ है ताब जो देखे तेरी निगाह
शेराँ तेरी निगाह की दहशत सूँ टल गए
साफ़ी तेरे जमाल की काँ लग बयाँ करूँ
जिस पर क़दम निगाह के अक्सर फिसल गए
मरने से पहले जो कि मेरे इस जगत मिनीं
तस्वीर की निमत वो ख़ुदी सूँ निकल गए
पायें जो कोई लज़्ज़त-ए-दीं जग में ऐ 'वली'
दुनिया में हाथ अपने वो हसरत सूँ मल गए
79
सजन में है शुआर-ए-आशनाई
न हो क्यूँ दिल शिकार-ए-आशनाई
सनम तेरी मुरव्वत पे नज़र कर
हुआ हूँ बेक़रार-ए-आशनाई
निपट दुश्वार था मुझ दिल में ऐ जाँ
ज़मान-ए-इंतिज़ार-ए-आशनाई
हुआ मालूम तुझ मिलने सूँ लालन
कि रंगीं है बहार-ए-आशनाई
हया के आब सूँ बाग़-ए-वफ़ा में
रवाँ है जू-ए-बार-ए-आशनाई
वफ़ा दुश्मन न हो ऐ आशनारू
वफ़ा पर है मदार-ए-आशनाई
मुरव्वत के हमेशा हाथ में है
इनान-ए-इख्ति़यार-ए-आशनाई
मदारा है हिसार-ए-आशनाई
'वली' इस वास्ते गिर्यां हूँ हर आन
कि तर हो सब्ज़ाज़ार-ए-आशनाई
80
अंदोह-ओ-ग़म की बात तिरे बाज बन गई
आवाज़ मेरी आह की फिर ता गगन गई
ताहश्र उसका होश में आना मुहाल है
जिसकी तरफ़ सनम की निगाह-ए-नयन गई
सुरमे का मुँह सियाह किया उसने जग मिनीं
जिसकी नयन में पीव की ख़ाक-ए-चरन गई
तनहा सवाद-ए-हिंद में शुहरत नहीं सनम
तुझ ज़ुल्फ़ मुश्कबू की ख़बर ता ख़ुतन गई
अब लग 'वली' पिया ने दिखाया नहीं दरस
ज्यूँ शम्मे-इंतिज़ार में सारी रयन गई
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